Wednesday 26 February 2014

मज़बूरी की राजनीती या राजनीती में मज़बूरी





विद्या भूषण रावत 


उदित राज ने भाजपा में प्रवेश किया। रामदास अठावले भाजपा की मदद से राज्य सभा में आ गए और राम विलास पासवान अभी भी बात चित कर रहे हैं के समझौता किया जाए या नहीं। अभी उनका हिसाब किताब पूरा नहीं हुआ है. लेकिन मोदी अब मुद्दा नहीं है ऐसा उनका कहना था क्योंकि कोर्ट ने उनको क्लीन  चिट दे दी है और इसलिए मोदी पर बार बार आरोप लगाने का मतलब नहीं है. पासवान साहेब बहुत मंझे हुए वक्ता हैं और जब बोलते हैं तो जोश अपने आप आता है. मैंने पासवान, लालू, शरद, उदित राज सभी की सभाओ को देखा है और बहुत करीब से. जब अपने 'समय' में थे तो समर्थक लोग 'देश का नेता कैसा हो पासवान जैसा हो' या बच्चा बच्चा भीम का पासवान की टीम का' आदि नारे लगाते थे. लगता था जैसे सभी अभी प्रधानमंत्री बन्ने वाले हैं. समर्थक इतने इमोशनल होते थे के बोल्लीवूड वाला भी मात खा जाए. 

पासवान तो एन डी ए की सरकार में मंत्री भी थे और जब देखा कि स्थिति खराब है तो यू पी ए में आ गए गुजरात के नाम पर धर्मनिरपेक्षता बचाने के वास्ते लेकिन अब धरनिरपेक्षता के रहते चिराग पासवान के लिए भी जगह निकलना मुश्किल है इसलिए मोदी मुद्दा नहीं हैं अपितु उनकी हवा है. पासवान की कार्यप्रणाली को जानने वाले उनकी राजनितिक मज़बूरी भी जानते हैं.  हकीकत यह है के जिस मज़बूरी के तहत कांशीराम ने मुलायाम सिंह के साथ गठबंधन तोड़कर भाजपा का साथ अपनाया था वोही राजनैतिक मजबूरियां दलित नेतृत्व की हैं. हालाँकि ये केवल मज़बूरियाँ नहीं हैं अपितु अवसरवादिता भी है जो केवल अस्मिता के नाम पर अपने समुदायों की दूकान सजाये बैठे हैं और  संघ परिवार और  ब्राह्मणवादी शक्तियां उनकी और गिद्ध  जैसी  दृष्टि लगाए बैठे हैं/

दलित आंदोलन की सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि बाबा साहेब आंबेडकर के बाद वैचारिक तौर पर सशक्त और निष्टावान नेतृत्व उसको नहीं मिल पाया हालाँकि आम दलित कार्यकर्ता अपने नेताओ के जान तक कुर्बान करने को तैयार है. आज यदि ये सभी नेता मज़बूत दिखाई देते हैं तो इसके पीछे मज़बूर कार्यकर्ता भी हैं जो अपने नेता के नाम पर लड़ने मरने को तैयार हैं. सत्ता से जुड़ना राजनैतिक मज़बूरी बन गयी है और इसमें सारा नेतृत्व आपस में लड़ रहा है. अगर हम शुरू से देखें तो राजनैतिक आंदोलन का चरित्र पता चल जाएगा। बाबा साहेब आंबेडकर ने समाज के लिए सब कुछ कुर्बान किया। उन्होंने वक़्त के अनुसार अपनी नीतिया  निर्धारित की लेकिन कभी अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया। लेकिन बाबा साहेब के वक़्त भी  जगजीवन राम थे. हालाँकि उनके समर्थक यह कहते हैं के बाबूजी ने सरकार में  दलित प्रतिनिधत्व को मज़बूत किया लेकिन  आंबेडकर वादी  जानते हैं के उनका इस्तेमाल आंबेडकर आंदोलन की धार को कुंड करने के लिए किया गया.

लेकिन यह भी हकीकत है के अपनी मृत्यु से पहले तक बाबूजी के दम पर दलित कांग्रेस के साथ जुड़ा रहा।  बाबूजी की मृत्यु के बाद  कांशीरामजी का उदय  हुआ।  अपनी  मेंहनत और निष्ठा से उन्होंने बिखरे आंबेडकरवादी समाज को जोडा और नतीजा सपा के साथ सरकार बनी. लेकिन  बाद में कांशीरामजी की समझ में भी आ गया के मुलायम सिंह के साथ रहकर मायावती कभी भी मुख्यमंत्री नहीं बन सकती और इसलिए गठबंधन टूट गया. बसपा ने भाजपा के साथ गठबंधन किया और प्रदेश में सरकार बनी. हालांकि बह बहुत अच्छा नहीं रहा लेकिन पिछले चुनाव में बसपा ने इसी राजनैतिक गठबंधन को सामाजिक बनाकर  जीता। मतलब ये के मायावती ने सर्वजन का नारा देकर ब्रह्मणो और अन्य ताकतवर लोगो को अपने साथ जोड़ा क्योंकि उनका दलित वोट पक्का था.

जैसे जैसे लोकतंत्र की बयार नीचे जायेगी हमारे राजनैतिक नेताओ की महत्वाकांक्षा बढ़ती चली जायेगी। कांशीराम ने एक प्रयोग किया और वह सफल हो गया लेकिन उसकी बहुत से कारण थे. न केवल उन्होंने अम्बेडकरवादियों को पकड़ा अपितु उत्तर प्रदेश में चमार जाति का राजनैतिकरण  पहले से ही था।  बाबा साहेब आंबेडकर के मिशन के नाम पर बहुत से लोग छोटी छोटी पत्रिकाएं,  छोटे मोटे कार्यक्रम, सेमिनार इत्यादि पहले से ही चल रहे थे।  रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया का उत्तर प्रदेश में बहुत बड़ा वजूद था।  उत्तर भारत में चमारो की बहुत बड़ी संख्या है जो राजनैतिक तौर पर बहुत परिपक्व हो चुके थे इसलिए कांशीराम ने  जगजीवन राम की मृत्यु की बाद हुए राजनैतिक गैप को न केवल भर दिया अपितु बाबा साहेब के आंदोलन को एक नै राजनैतिक धार भी दी. सही हो या गलत, बसपा के उदय ने दलितो को देश भर में एक नई ताकत दी. कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में ऐसी जातियों को पकड़ा जो राजनैतिक तौर पर हासिये पर थी और उनको मौका दे कर उन्होंने इन जातियों को आंदोलन से जोड़ दिया।  
लेकिन ऐसे भी हुआ के उनकी मौत के बाद बहुत सी  बातें ऐसे हो गयी जो  उनके सिद्धांतो के बिलकुल विपरीत हो गयी. जब दलितो की बहुत सी जातिया और उनका नेतृत्व बसपा के सर्वजन के चक्कर में हाशिये पर चला गया तो उन्होंने भी वही तरकीब निकाली जो कांशीराम ने किया। हरेक अपने को उसी लाइन पे लेकर अपनी जातियों का वोट बैंक बनाकर दूसरे से समझौता करता लेकिन ये खेल पिट गया क्योंकि सभी जातियां तो चमार और यादवो की तरह राजनैतिक तौर पर परिपक्व और संघर्षील नहीं थी। उनकी संख्या भी पुरे प्रदेश में नहीं थी इसलिए काम और मुश्किल हो गया।   सोने लाल पटेल ने अपना दल बनाया था और उनके पुत्री ने संगर्ष चलाया भी लेकिन अब सुनाई दे रहा है के वह भी हिंदुत्व के साथ वार्तालाप कर रही  है।  ओम प्रकाश राजभर ने एक पार्टी बनाई लेकिन चली नहीं। अन्य कई छोटे छोटे दल बने लेकिन पिट गए क्योंकि केवल संख्या नहीं अपितु संगर्ष शील समाज चाहिए तभी तो काम बनेगा।

कई जातियां तो हिंदुत्व विरोधी होना थोडा मुश्किल है क्योंकि आर्थिक हालत ऐसे हैं।  अधिकांशतः दलित  वही परम्परा, त्यौहार मानते हैं जो हिंदूवादी हैं. दो चार अम्बेडकरवादी जो हैं  भी, वे भी परम्पराओ पे चलने के लिए अपनी पत्नियों और परिवार का बहाना बनाकर उसको सही साबित करने की  कोशिश करते हैं।  जब विचार की राजनीती की बजाये केवल अपनी जाति की राजनीती होनी है तो नतीजे ये ही होंगे। उदित राज ने जब बुद्ध धर्म ग्रहण किया तो उन्हें लगा के अब वे देश के दलितो को मायावती का विकल्प दे पाएंगे। अखबारो के सुर्खियो में वे छाये रहे. आरक्षण के मुद्दे पर लगातार लड़ते रहे लेकिन सामाजिक तौर पर वह कुछ नहीं कर पाये जो बुद्ध धर्म अंगीकार उन्होंने किया। असल में केवल परिसंघ और सरकारी कर्मचारियों के बदोलत आप राजनीती नहीं कर सकते। कांशीराम इसको जानते थे और इसलिए उन्होंने सरकारी लोगो से दुरी बनाये रखी और आम कार्यकर्ता को तरजीह दी जो आज के युग में दिखाई नहीं देता। दूसरे, कांशीराम में कभी दम्भ नहीं आया और राजनीती में धन और वेशभूषा को उन्होंने कभी तरजीह नहीं दी. मैंने तो शायद ही उन्हें कभी टाई पहने देखा। राजीनति में लोगो से जुड़कर होना होता है वो आज के नेताओ में नहीं दिखाई देता क्योंकि कांशीराम तो वह बनना चाहते हैं लेकिन  उतना साधारण होकर जनता से जुड़ना नहीं चाहते। उदित राज के पास भी संख्या नहीं थी क्योंकि उनकी बिरादरी शहरो तक सीमित है और वो भी मुखर रूप से अम्बेडकरवादी विचार से कभी ज्यादा नहीं जुडी। 

उदित राज ने बहुत काम किया लेकिन जो सांकृतिक कार्य उन्होंने किया वो समाज में ले जाना मुश्किल था।  उत्तर प्रदेश के जातियों के खेल में उनके नेतृत्व को नहीं स्वीकारा गया।  कुछ लोग कहते हैं के वो खटीक जाति के हैं इसलिए चमारो ने उन्हें नहीं  स्वीकारा लेकिन ये पूरा सत्य नहीं है. उत्तर प्रदेश में अभी भी मायावती तन के कड़ी हैं और चमार अभी उनसे नाराज हो सकता है लेकिन उनके विरुद्ध नहीं जा सकता। दो चार लेख लिखने वाले अपना दावा कर सकते हैं लेकिन बृहत्तर समाज में अभी भी बसपा प्रथम नम्बर की पार्टी है।  जिसने भी मायवती को बुरा भला कहा या पार्टी के खिलाफ काम किया उसको उत्तर प्रदेश के चमारो ने कभी स्वीकार नहीं किया चाहे वो उनकी बिरादरी का ही क्यों न हो।  मायावती को इसका बहुत लाभ मिला है लेकिन क्योंकि लोग उनमे अभी भी सम्भावनाएं देखते हैं इसलिए ऐसे स्थिति आती है।  

उदित राज ने बहुत प्रयास किये लेकिन उनकी जाति के  समीकरण कभी उन्हें सांस्कृतिक राजनैतिक क्रांति के हथियार नहीं बनने नहीं दिए   खटीकों की संख्या बहुत कम है जो मुख्यतः शहरो में रहते हैं इसलिए उनका मुख्य अल्लयेन्स हिंदुत्व की ताकतो से ही बनता है. मुख्यतः  फल विक्रेता या  मीट विक्रेता का ही उनका मुख्या काम है और शहर में उनका मुख्या ग्राहक हिन्दू है क्योंकि हलाल और झटका भी हमारी सोच को सीधे सीधे प्रभावित करता है।  आपका ग्राहक कौन है ये आपकी सामाजिक राजनैतिक सोच को प्रभावित करता है इसलिए खटीक मुख्यतः 
व्यापारी वर्ग है और उनका सीधा रिश्ता हिन्दुओ से है बुद्ध धर्म से वे ज्यादा प्रभावित नहीं होने वाले। ये इस देश की त्रास्दी है के अपनी जाति के आलावा हमारी स्वीकार्यता नहीं बन पाती इसलिए उदित राज का निर्णय उनकी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए एक राजनैतिक निर्णय है जिसे उनके समुदाय का पूरा  समर्थन होगा क्योंकि वह पहले से ही भाजपा के साथ है. 

उदित राज के भाजपा में शामिल होने को मैं उनका एक राजनैतिक निर्णय मानता हूँ जो राजनैतिक सामाजिक मज़बूरियों के तहत है क्योंकि अगर नहीं करते तो उनका वज़ूद समाप्त हो जाता। रामविलास के मज़बूरी भी वही है क्योंकि उन्हें लालू की छाया में नहीं रहना और अपने परिवार को किसी तरह से उसकी 'जागीर' सौंपनी है इसलिए वह जानते हैं के इस वक़त संघ और हिंदुत्व को दलितो की आवश्यकता है इसलिए वो अपनी राजनैतिक गोटियां शेक रहे हैं.  रामदास अठावले ने तो आर पी आई को हिंदुत्व के दर्शन करा दिए इस्ल्ये इससे  अधिक शर्म की  बात  क्या होगी।  गले में माला और कई कई अंगूठी पहनने वाले संजय पासवान संघ के सेवक होकर अपने को  अम्बेडकरवादी कहते हैं और हम सभी को अपने  मंचो पे बुलाकर महिमांडन करते हैं. 

दलित आंदोलन का ये अंतर्द्वंद रहा है के राजनैतिक ताकत को अति महत्व देकर सांस्कृतिक सामाजिक परिवर्तनो के मुद्दो को हासिये पर रखा है. मैं ये मानता हूँ के बिना सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन के राजनैतिक परिवर्तन अंत में नाकाम होंगे और सभी को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में समाहित कर लेंगे। राजनैतिक परिवर्तन की हवा में बहकर हम सभी उसे अपना  अंतिम लक्ष्य मान लेते हैं और फिर उसकी प्राप्ति के लिए साम दाम दंड भेद लगाते हैं और अपने मूल्यों और सिद्धांतो का कत्ल करते हैं. सत्ता की चाबी राजनीती है ने अब फायदे के बजाय नुक्सान करना सुरु कर दिया है क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में रहते हुए भी इस देश के अंदर सही मायनो में सम्पति का बँटवारा नहीं हो पाया और भूमि सुधार केवल कानून की किताबो में रहे. देश के अधिकांश दलित आबदी आज भी भूमिहीन है और सत्ता के गलियारो में उसकी भूमिका १% सरकारी नौकरियों से है जिस पर भी हंगामा बरपा है।  

दलित आंदोलन को केवल सरकारी नौकरियों और चुनावो की राजनीती तक सीमित कर देना उसकी विद्रोहात्मक क्रांतिकारी धार को ख़त्म करदेने जैसा है।  आंबेडकर को केवल भारत का कानून  मंत्री  और भारत के संविधान निर्माता तक सीमित करके हम उनके क्रांतिकारी सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन के वाहक की भूमिका को नगण्य कर देते हैं। सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के लिए हमें ऐसे क्रांतिकारी योद्धा चाहिए जो सत्ता से  दूर रहकर ईमानदारी से जोड़ने का काम कर सके. हमारे सामने बहुत बड़े  उदहारण हैं जिन्होंने बिना राजनीती के दूरगामी परिवर्तन किये। फुले, आंबेडकर, पेरियार, आदि इसलिए हमारे महापुरुष नहीं हैं क्योंकि किसी विभाग के मंत्री थे अपितु इसलिए के समाज बनाने के लड़ाई को उहोने बिना किसी  मोल भाव के लड़ा. उनके लिए भारत निर्माण का  सपना था हो ब्राह्मणवादी व्यवस्था को समाप्त करके ही बन सकती है. इसीलिए सत्ता का टेम्पटेशन बहुत खतरनाक होता है क्योंकि ये  विद्रोहियों को  सत्ता में समाहित कर बहुसंख्यक जनमानस को गुलाम बनाकर  रखता है. ब्राह्मणवादी व्यस्था में आंबेडकर का विद्रोह किसी भी दूसरे विद्रोह से बड़ा है क्योंकि इसमें उस व्यवस्था की चूले हिला दी.

 सवाल ये नहीं के दलितो को राजनीती नहीं करनी या राजनितिक हिस्सेदारी नहीं करनी लेकिन ये भी  देखना पड़ेगा के संसदीय राजनीती में दलित अकेले निर्णायक नहीं है और इसलिए दलित नेतृत्व के मज़बूरी है के वो अपनी नेटवर्किंग को बड़ा करे. दलित बहुजन मिलकर इस राजीनति को एक नयी दिशा दे सकते थे लेकिन व्यक्तिगत  महत्वाकांक्षाओ के कारण  पूरे आंदोलन को बहुत नुक्सान हुआ है.  दूसरे मात्र नेताओ को गाली देकर काम बनाने से रहा क्योंकि जो लोग आज हिंदुत्व के साथ दिखाई दे रहे हैं उनमे से बहुत को कोई भी आज भी ब्राह्मणवादी नहीं कहेगा। आज न केवल दलित आंदोलन अपितु अपने को  धर्मनिरपेक्ष कहने वाले लोगो को प्रश्न पोछना पड़ेगा के ऐसा क्यों हो रहा है. अगर कांग्रेस और रास्ट्रवादी कांग्रेस में रामदास अठावले के रस्ते बंद हैं तो वो क्या करें ? अगर बसपा, सपा, कांग्रेस और अन्य स्थानो पर उदित राज के लिए एंट्री बंद है तो वो क्या करें ? राजनीती में या तो आओ मत और यदि आ गए तो ये तिकड़मे तो करनी पड़ेगी क्योंकि एक बार आप हासिये पे गए तो फिर कोई पास में नहीं होगा और आप किसी काम के नहीं रहेंगे। क्योंकि आज की राजनीती में अपने को समाप्त कर समाज के लिए जीने के न तो जिजीविषा और न ही इतना बौद्धिक ताकत। क्या ये दलित आंदोलन या सेक्युलर आंदोलन की कमजोरी नहीं के नामदेव ढसाल जैसे अम्बेडकरवादी अंत में  शिवसेना की तरफदारी करते दिखे ?  क्या हम अपने आप में झांकेंगे या नहीं ?

यह भी एक कटु सत्य है के उदित राज, रामविलास और अठावले ने भाजपा के साथ पहले हे समझौता करके मायवती के एन डी ए में आने के संभावनाओ को फिलहाल तो समाप्त कर दिया है. सभी जानते थे के बहिनजी भी एन वक़्त पर समझौता कर लेंगी और फिर इन लोगो की  पार्टी में जाने कि या अलाएंस की सम्भावनाएं पूर्णतः ख़त्म हो जाती। इसको सिद्धांतो से न जोड़कर देखें तो अच्छा। भारत में वैसे भी राजीनति की मुख्यधारा अवसरवादिता है इसलिए दलित  राजनीती उससे अछूता कैसे  रह सकती  है ?  

राजनीती को समाज परिवर्तन का साधन मानने वाले भूल गए के बुद्ध ने सत्ता को लात मारकर दुनिया में परिवर्तन की क्रांति की और बाबा साहेब आंबेडकर ने अंत में ये मान लिया था के सांस्कृतिक क्रांति के बिना भारत प्रबुद्ध नहीं बन सकता है ?  भारत को प्रबुद्ध बनाने के रस्ते में सबसे बड़ी रुकावटे अस्मिताओं के नाम पर जातियों की दुकानदारी लगाने वाले लोग. समय आ गया है कि हम सभी प्रश्नो पर सोचे और विचारकर एक क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन  खड़ा करें जो विहचारधारा का खिलवाड़ कर रहे नेताओ को उनका  रास्ता दिखाए। दलित आंदोलन को अपने अंदर की विविधता को स्वीकारना होगा। 



 राजनैतिक  विचारधारा  में रहने वाले लोग आज हासिये पर हैं लेकिन वे खुश रहते हैं. नेता जानते हैं के एक बार वे सत्ता में आ गए तो लोग उनके 'कुकर्मो' को भूल जायेंगे। इसलिए वे इस बात की परवाह नहीं करते के किस विचारधारा के साथ समझौता कर रहे हैं क्योंकि उनके पास हर बात का 'जवाब' है और एक बार मंत्री बन गए तो जी हज़ूरी के लिए तो लोग खड़े हैं।  जो लोग हिंदुत्व को गली देते हैं अपने मंचो पर उन्ही के नेताओ के आने पर बम बम हो जाते है. हमारे नेता हमारे समाज का प्रतिनिधत्व हैं और इसलिए वे बेलगाम हैं क्योंकि वे जानते हैं के उनकी जनता उन्हें 'मंत्री', 'सांसद' या '  विधायक' बनते देखना चाहती है. सत्ता के इस राजनीती के मुहावरे को नेताओ ने बहुत भुनाया है और इस्तेमाल कर  जनता'को  भ्रमजाल में रखा है. सिद्धांतो की राजनीती के लिए आपको कुछ मिलने वाला नहीं क्योंकि आपके पास चार चमचे भी नहीं रहेंगे। कांशीराम ने चमचो से सावधान रहने को कहा लेकिन चमचो के बिना नेता एक प्रकार की सजाये मौत है जो कोई नहीं चाहता और चमचे बिना सत्ता के मिल नहीं सकते इसलिए ये कुचक्र चलता रहेगा। बाबा साहेब ने कहा था कि हिन्दू रास्त्र देश के लिए सबसे खतरनाक होगा क्योंकि ये  वैसे ही होगा जैसे कोई इस्लामिक राष्ट्र और इसलिए भारत के विकास के लिए सभी को साथ लेकर चलने वाले लोग चाहिए। अम्बेडकरवादी वो हो सकते थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वो आंदोलन को आगे लेजाने की बजाये अब  पीछे की तरफ खींच रहे हैं क्योंकि इस राजनीती का मकसद आज़ादी नहीं अपितु सत्ता है जो व्यक्तिगत महत्वकाक्षाओ को पूरा करने के लिए समाज के बली देने को तैयार हैं. अब सवाल यह के क्या समाज बली का बकरा बनने को तैयार है या नहीं ? 

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