Tuesday 8 January 2013

एक भयाक्रांत समाज





विद्या भूषण रावत 

हमारे समाज को आसा राम बापू से बहुत बड़ा खतरा नहीं है क्योंकि उसने वोही कहा जो हमारी परम्पराओं और ग्रंथो में लिखा है। बेचारा सीधा साथ मनुवादी और हम सब इतने गुस्से मैं हैं ऐसे लगता है उसने भारतीय संस्कृति के विरुद्ध कोई बात कह दी . हकीकत तो यही है के वोह हमारी परम्पराऔ  के अनुसार ही बोल रहा था जिसमे लड़की को दब के रहना है, दया की भीख मंगनी है और हमेशा अपनी 'गुलामी' के सबुत देने हैं। आसाराम जैसे लोग भाषा ज्ञान वाले नहीं हैं वे तो जैसे समझे वैसे बोल दिए।  हमें तो सबसे बड़ी दुश्मनी उनसे हैं जिनके जुबान और दिल अलग अलग हैं। बहुत से लोग जानते हैं के मीडिया सामने है और टीवी पे सुनायी देंगे इसलिए वे बातो को घुमा फिर के कह देते हैं परन्तु आसाराम की तो महिमा न्यारी है वो तो अपने भक्तो के लिहाज से कहते हैं।

अब आसाराम के खिलाफ बोलके क्या करोगे। सुष्माजी के पार्टी वाले तो कह रहे हैं के वोह आसाराम की बोलने के स्वतंत्रता का सम्मान कर रहे हैं और यह कि  भारत में बोलने की आज़ादी है। आसाराम एक बहुत बड़े  भारत के सोच को प्रदशित करते हैं। आन्दोलन चाहे जितने हों गाँव में और छोटे कस्बो में, लड़कियों के जाने पर प्रतिबन्ध लगेंगे और घर से बहार निकलना दूभर होगा क्योंकि वोह तो हमारी 'इज्जत' हैं।

अब आसाराम तो देश के प्रशाशक नहीं हैं लेकीन जो प्रशाशक हैं उनकी भी सुन लो। अगर महिलाओं की बात कहें तो हिंदुत्व की  पलटन के फौजी तो लगातार ये कह रहे हैं की महिलाओं को अपनी सीमा भी जाननी  चाहिए। छात्तिश्गढ़ महिला आयोग के अध्यक्ष विभा राव  ने कह दिया कि  लडकियां ही मौका देती हैं और आसाराम कहते हैं के भाई बना लो। कैलाश विजयवर्गीय कहते हैं के लक्ष्मणरेखा पार करोगी तो भुगतना पड़ेगा तो संघी प्रहरी मोहन  भागवत अब पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव को पुरे घटनाक्रम के जिम्मेवार मान रहे हैं। भाभी फिल्म में एक गाना था ' जवान हो या बुढिया, औरत जहर की है पुडिया' और संघ परिवार का इसमें पूरा यकीं दीखता हैं।

क्या करें उस समाज का जो उन लोगो का नेतृत्व चाहता है जो उसके गिरने में और मरने में भी अपनी दुकान सजा रहे हैं। भारत में सामाजिक बदलाव की लड़ाई को छुपा दिया गया और उसे केवल पृथकतावादी  नज़रिए से देखा गया। जो मुहीम सावित्रीबाई फुले की थी या बाबा साहेब आंबेडकर का जो  सपना थी और पेरियार का आन्दोलन थी वो हमारे तथाकथित मुख्यधारा के अजेंडे में कहीं भी नहीं है। भारत में हम कभी भी किसी लड़ाई को मुकाम तक नहीं पहुंचा पाए क्योंकि सबके अपने ब्राह्मणवाद हैं और मनुवादी तंत्र ने हर समाज और हर जगह अपनी तगड़ी घुश्पैठ बना ली है। जब भी लड़ाई आगे बढ़ती है तो लड़ने  वाले एक दुसरे को ज्यादा धमकाते हैं और जहाँ निशाना होना चाह्हिये  वह नहीं हो पाता . इतने वर्षो के संघर्ष के बाद हमारे अपने अपने कुनबे हैं और अपनी अपनी खापे हैं लेकिन हम खापो को खात्मे के लिए बात नहीं कर पाए।

मनुस्मृति पर हमला करना या भगवानो पर 'आक्रमण' आसान है। गीता की पोल पट्टी  खोलना और रामायण को गरियाना भी आसान है लेकिन जिन परम्पराओं और जकडन में  हम हैं उन्हें चुनौती देना बहुत मुश्किल है। क्या अम्बेडकरवादी कभी देवी भक्त हो सकते हैं ? लेकिन बहुत से  हैं और बड़े गर्व से जाते हैं। मंदिर या मस्जिद जाना किसी का व्यक्तिगत अधिकार है लेकिन फिर अपने को मानववादी या अम्बेडकरवादी न कहे।  हमने विवाहों के मुहूर्तो को खत्म कर दिया परन्तु अपने मुहूर्त बना दिए। हमने ब्राह्मणों से छुटकारा पाने की कोशिश की लेकिन अपने पुरोहित बनालिए तो फर्क क्या पड़ा क्या हमारे पुरोहित, हमारे मुल्ले हमारा शोषण नहीं करेंगे . यह हमारी तुम्हारी बहस में ही हमारे मुद्दे हैं। कह रहे हैं के हमारा मुद्दा नहीं उठाया तो भाई आपको मुद्दे उठाने और धरना देने से कौन रोकता है।  हम यहाँ बैठकर कम से कम काम करनेवालों को तो न गरियायें। जब हम अपने अपने मिसन में लगेंगे तो किसी की निंदा का समय कहाँ है। अम्बेडकरवाद को सकारात्मक कार्य में यही बाद बदल सकती है के हमारी सकारात्मक उर्जा सार्थक कार्यो में लगे। केवल पत्थर फेंकने से काम नहीं चलेगा आखिर इतने बड़े समाज में बदलाव के लिए वैकल्पिक विचारधारा की आवश्यकता है। मान  लिया की मनुवादियों ने अपनी महिलाओं और दलित महिलाओं का अपमान किया और हम सबको उसकी निंदा करनी चाहिए लेकिन क्या हमने अपने महिलाओं को उतना सम्मान दिया। सवाल लड़ने का है। अगर 'वोह' अपने अधिकारों के लड़ रहे तो आपको कौन रोकता  हैं अपने अधिकारों के लड़ने के लिए? जहाँ तक मीडिया के बात है, उनके लिए यह सब इवेंट मैनेजमेंट हैं और यदि हमारी इवेंट अच्छी रही तो वो इसे भी रिपोर्ट करेंगे। दुसरे यह के आन्दोलन मीडिया से न तो बनते और न ही उन्हें उम्मीद रखने चाहिए। केजरीवाल मीडिया की उपज हैं लेकिन आज कहाँ हैं यह हम सब जानते हैं । मायावती और कांशीराम बिना मीडिया के एक पूरा आन्दोलन खड़ा किये और आज मीडिया उनके पीछे पीछे भागता है। मीडिया में आकर आन्दोलन नहीं चलते और नहीं उससे हम चीजो को जिन्दा रख पाएंगे। बाबा साहेब आंबेडकर ने अपने लेखन से इतना काम किया के कोई उनको किनारे नहीं कर सकता 

आज बौद्धिक इमानदारी की जरुरत है। हमारी शिकायत मीडिया से वाजिब है लेकिन हम इन अखबारों से इतनी ज्यादा उम्मीद क्यों करते हैं जो धंधेबाजी में लगे हैं। हम उनका इस्तेमाल केवल समाचार इकठ्ठा करने में कर सकते हैं क्योंकि अगर हमने एक दो अख़बार ले भी लिए तो भी सूचनाएं इकठा करना आसान नहीं है। इसलिए उस संस्कृति की और जाना पड़ेगा जहाँ हर एक साथी एक विशेषज्ञ है और उसको किसी टाइम्स ऑफ़ इंडिया की जरुरत नहीं अपनी विशेषज्ञता दिखने के लिए। यदि हम अपने पे भरोषा करते हैं तो इन अखबारों के जरिये अपनी विशेषज्ञता न दिखाये। हम अपना कार्य करते रहे। किसी प्रबुद्ध आन्दोलन का उद्देश्य होता है अधिक से अधिक लोगो को अपनी विचारधारा में लाने का और इंसान की जिजीविषा और कर सकने की क्षमता में विश्वास दिलाने का। आज देश को गर्त में ले जाने वाली ताकतों का पर्दा फास हो रहा है। दिल्ली के घटनाक्रम ने बहुत सी बातो का पर्दाफास किया है। ब्राह्मणवादी धकोस्लेवादी भी खुल चुकी है तो इस्लाम के दीवानों ने भी अपनी सही हकीकत बता दी है के औरत के मामले में वोह कितने सतर्क है क्योंकि औरत के खुलने से उनके यहाँ भी व्यवस्था के चरमराने का खतरा बना हुआ है।

जब बहस ज्यादा तेज हो जाए तो उसको कैसे खत्म करें। इसके लिए सबसे मज़बूत मंत्र है वोह सामंती सोच और जातिवादी मानसिकता के परोकारो ने हमें दिया। हमारी किस्मत ख़राब है इसलिए ये सब हुआ और देखिये किस तरह छात्तिश्गढ़ के ननकू राम ने महिलाओं पे हो रही हिंसा को 'नक्षत्रो' के ऊपर डाल दिया। अब हम मंगल गृह पर जाने की तैयारी कर रहे हैं और ननकू जी अपने प्रदेश में हो रही घटनाओं पर अपने मंत्रालय की नाकामी को छिपा रहे हैं और गृह नक्षत्रो को बीच में ला रहे हैं। अब असा राम ने तो ग्रहों को हवाला नही दिया लेकिन अब  पुरोहितो की चांदी  आ जाएगी। वोह तो सब जानते हैं, ताबीज, व्रत इत्यादि और वोह दिन दूर नहीं जब टीवी पर हम 'बलात्कार' से कैसे बचे मुद्दे पर भी इन 'भुदेव्ताओ' के टोटके देखेंगे। इस देश में लोगो की बहुत बड़ी आबादी है जो भाग्य के इस खेल में जकड़ी है और सामाजिक बदलाव को रोकने के लिए सभी समाजो के अंदर घनघोर विरोध है तो ऐसे पाखंडी बाबा, पुरोहित, विशेषज्ञ जिन्दा रहेंगे। समय है के ऐसे मोहन प्यारो, उनकी आसाओ  और ननकुओ को समझने की। अपने अपने दुश्मनों को हम सब अच्छे से जानते हैं जरा दोस्तों को पहचान लो यारो नहीं तो ऐसे ही सवाल बनते रहेंगे और जब भी पुरोहितवाद का पर्दाफास होगा हमारे अपने अन्दर ही उसको बचाने  के गुण विकसित हो जायेंगे और यही कारण है वर्णवाद और पुरोहितवाद जिन्दा है और जिन्दा रहेगा क्योंकि बदलाव से हम सभी को डर लगता है।

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