Saturday 21 April 2018

मनु और विज्ञानं

विद्या भूषण रावत
आज दिल्ली से प्रकाशित कई अखबारों में एक खबर ने सबका ध्यान आकर्षित किया और वो यह के पुणे में भारतीय मौसम विज्ञानं केंद्र में डिप्टी डायरेक्टर के पद पर तैनात वैज्ञानिक डाक्टर मेधा खोले ने  पुलिस थाने में अपने घर पर खाना बनाने वाली महिला निर्मला यादव के विरुद्ध झूठ बोलने और जाति छिपाने की शिकायत दर्ज करवाई है . मेधा खोले का कहना है के वह ब्राह्मण हैं और उन्हें अपने घर में खाना बनाने के लिए एक ब्राह्मण महिला चाहिए थी ताकि वो अपनी परम्पराओं का निर्वहन कर सके और यह के निर्मला ने अपने को ब्राह्मण बता कर नौकरी ली जबकि निर्मला का कहना है के मेधा  के घर के पंडित उनको जानते थे और उन्होंने ही हमें ये काम दिलवाया. पिछले कुछ महीने से उनको पैसे भी नहीं मिले हैं और जब उन्होने पैसे मांगे तो उनके खिलाफ इस प्रकार की शिकायत दर्ज करवा दी गयी जिसने कुछ नहीं तो ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रहों के पोल खोल के रख दी है . वैसे इस क्रूर सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता के किराये पर मकान ढूँढने, खाना बनाने की नौकरी तक के लिए लोग जाति के आधार पर ही ‘अवसर ‘ देते हैं . एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली की प्राइवेट कंपनियों में नौकरी के आवदेन के लिए जाति के अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ी जाति या मुस्लिम होने पर आपको नौकरियों में इंटरव्यू तक के लिए बुलाने की बहुत कम सम्भावना है, इसलिए कई बार लोग अपनी जाति छुपा देते हैं लेकिन ऐसा करना इस समाज की क्रूर ओर वीभत्स हकीकत पर पर्दा डालना ही होता है. लेकिन लोगो की अपनी मजबूरिया हैं .
इसलिए जो लोग भारत के सांस्कृतिक ढांचे को नहीं समझते उनके लिए पुणे की घटना यह बहुत बड़ी कहानी है और हो भी क्यों न क्योंकि एक वैज्ञानिक अपने घर की कुक के खिलाफ झूठी होने का आरोप लगा रही है क्योंकि उसने अपनी जाति छुपाई. माना के कुक ने नौकरी प्राप्त करने के लिए अपने को ब्राह्मण बता दिया तो प्रश्न यह है के उससे क्या नुक्सान हुआ . यदि उसके काम में कोई कमी होती तो शिकायत वाजिब हो सकती थी लेकिन माननीय वैज्ञानिक महोदय ने उस पर अपने धर्म को भ्रष्ट करने का आरोप लगाया . हकीकत में हमें बहुत अफ़सोस नहीं होना चाहिए क्योंकि मनुवादी वर्णवादी व्यस्था में तो आपकी योग्यता आपकी जाति से ही है. वैज्ञानिक साहिबा को इससे मतलब नहीं था उन्हें निर्मला के हाथ का खाना या घर पर उसकी सफाई या केयर कैसे थी और निसंदेह अच्छी रही होगी क्योंकि इसकी कोई शिकायत उन्होंने नहीं की लेकिन क्योंकि निर्मला पिछड़ी जाति से आती है इसलिए उनके सारे गुण अवगुणों में बदल गए और उन पर अपनी जाति छुपाने का आरोप लगा दिया गया .
मैं तो कई वर्षो से साफ़ कह रहा हूँ के भारत में सबसे ज्यादा अवैज्ञानिक और वर्णवादी वे लोग हैं जिनसे ऐसा होने की उम्मीद नहीं की जाती. यानि , भारत में विज्ञानं, तकनीक, व्यसाय, मेडिकल, मैनेजमेंट, कानून और मीडिया आदि के ‘विशेषज्ञों’ का अगर विश्लेषण किया जाय तो अधिकांश घोर पुरंतान्पंथी और जातिवादी मिलेंगे. ये भारत की सबसे बड़ी चुनौती है और जो लोग इन विधाओं में आ रहे हैं वो इनको समर्पित नहीं है अपितु इनका ‘विशेषज्ञ’ बनकर खूब पैसा कमाने की उत्कंठा के साथ वे इन विधाओं में आते हैं. इनमे बहुत बिरले ही होंगे जो अपनी विधा के विकास और उसको आम जनता में प्रसारित करने और अपने उद्देश्य के प्रति पुर्णतः समर्पित हों . मैंने बहुत बड़े बड़े डॉक्टर्स को पुरोहितो के आगे नतमस्तक देखा है . दिल्ली के अधिकांश अस्पतालों के आई सी यू के द्वार पर भगवान, साईं, और अन्य किसी देवी देवता की तस्वीर और उस पर लोगो का चढ़ावा आपको दिखाई दे तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए. सरकारी अस्पतालों में डाक्टर पोस्टमार्टम करते वक़्त डेड बॉडी को भी नहीं छूते. छोटे कस्बो में डाक्टरों की भी सबकी जातिया पता होती हैं और वो मरीज को दूर से ही ‘देख’ देते हैं. एक बार दिल्ली के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कालेज में मुझे अपनी बात करने से एक बड़े ‘प्रोफेसर’ ने रोक दिया था क्योंकि उन्हें लगा मैं ‘जातिवादी’ हूँ क्योंकि मैंने प्रवीण तोगड़िया की मेडिकल एथिक्स की बात की और दिल्ली में दो सफाई कर्मचारियों की मौत पर उनके परिवार वालो के उन आरोपों को दोहराया के डाक्टरों ने उनका ठीक से इलाज़ नहीं किया और उनको छुआ तक नहीं . मेडिकल रिपोर्ट में उनलोगों को, जो एक प्रतिष्ठित सरकारी संसथान में सीवर की सफाई में मारे गए, डाक्टरों ने, लावारिश दिखाया. ऐसे भी डॉक्टर हैं जिनके हस्पतालो में गायत्री मन्त्र चलते रहते हैं और इसको वो ‘मानसिक’ स्वास्थ्य लाभ के लिए जरुरी बताते है, बहुत से ‘विशेषज्ञ’ तनावग्रस्त लोगो को उससे मुक्त होने के लिए ‘धार्मिक चैनल’ देखने और ‘धर्म’ की पुस्तकों और ‘धार्मिक प्रवचनों’ को सुनने के सलाह देते हैं .क्या धार्मिक लोगो के अलावा नैतिकता और तनाव दूर करने के लिए और किसी ने कोई बात नहीं की है ?
दो दिन महीने पूर्व मुझे दिल्ली आई आई टी के एक दो छात्रो से मिलने का अवसर मिला. ये उत्तराखंड के एक छोटे से कसबे में कैंप कर रहे थे और वह के करीब ४० बच्चो को आई आई टी के लिए तैयार कर रहे थे . हम भी अपने साथियो के साथ वह कैंप कर रहे थे और सामाजिक मुद्दों पर चर्चाये करते थे. एक दिन शाम को उन छात्रो को लगा के हमारे साथ बैठ कर चर्चा करे. बात ही बात में पता चल गया के दलित-पिछडो का नाम सुनकर उनके दिमाग में कैसे ख्याल आता है के उनमे मेरिट नहीं होती और वो कोटा से आते हैं . हमने बताया के अभी तो आई आई टी और सिविल सर्विसेज में दलित पिछड़े छात्र अब टॉप कर रहे हैं और जनरल सीट से आ रहे हैं लेकिन अब सरकार ये कहना चाहती है के तुम केवल अपने कोटा से ही आ सकते हो. हमारी बहस आगे बढ़ती गयी और अन्धविश्वास पर पहुँच गयी . हमने शिक्षा में भगवाकरण की बात की और पूछा के जब बच्चे ये पढेंगे के पुष्पक विमान की खोज भारत में हो चुकी थी या प्लास्टिक सर्जरी तो शंकर जी ने गणेश जी की कर दी थी अथवा हनुमान सीधे रामेश्वरम से छलांग लगा कर लंका पहुँच गए या उन्होंने बचपन में सूरज को निगल दिया था तो हमारे मेरिटवादी वैज्ञानिक चिन्तक बोले ऐसा संभव था . बात बात में पता चल गया के वह मंगलवार को प्रसाद चढाते हैं और व्रत रखते हैं . हमें उनके ‘संस्कारो’ से कोई आपति नहीं थी लेकिन प्रश्न था उनके चिंतन का के किस तरह हमारे वैज्ञानिक समाज का मनुवादिकरण हो चूका है . क्या हमें नहीं दिखाई देता के हमारे देश के वैज्ञानिक अब केवल तकनीक विशेषज्ञ है जिन्हें मंगल्यान छोड़ने के लिए एक पुरोहित को बुलाकर नारियल फोड़कर शुरुआत करनी पड़ती है .
अगर देश में वैज्ञानिक चिंतन होता तो तमिलनाडु के दलित छात्रा अनीता जैसी लडकियों को पढने के लिए सपोर्ट करने वाले बहुत लोग मिल जाते लेकिन ऐसा सोचने वालो की भी कमी नहीं के एक दलित समाज की लड़की कैसे डॉक्टर बनने के सपने देख रही है . आज भी हासिये के विभिन्न समाजो  से निकले हैं साथियो के लिए जब नौकरी की बात होती है तो अधिकांश लोग उनसे उम्मीद करते हैं के अपनी ‘विरासत’ संभाले . यानि ये समाज अभी भी मान रहा है के सफाई का काम एक विशेष समुदाय ही करे और ‘ज्ञान’ पर सिर्फ एक ही समुदाय का एकाधिकार रहे .
वैज्ञानिक चिंतन आखिर कैसे आएगा इस समाज में और क्यों आएगा ? जो वैज्ञानिक चिंतन लाएगा तो रुढिवादिता, झूठ और ठगी पर आधारित वर्णव्यवस्था की जड़ो को तोड़ेगा लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूँ के आने वाले समय में कुत्ते के पिल्लो की तरह हमारी नस्ल की क्वालिटी भी ‘वैज्ञानिक तरिको’ से बताई जायेगी और फिर हमारी जातिवादी व्यवस्था को सही साबित किया जाएगा . वैसे भी हिंदुत्व के नए डॉक्टर अभी ‘विशेष’ नस्ल के बच्चे चाहते हैं. अभी भी देश में कृत्रिम गर्भाधान के लिए ‘ब्राह्मण वीर्य’ भी विशेष तौर पर रखा जा रहा है . इसलिए विज्ञान और ज्ञान का इस्तेमाल वैज्ञानिक चिंतन के लिए ब्राह्मणवादी प्रभुत्ववाद को मज़बूत करने और सहित साबित करने के लिए हो रहा है.
देश के अस्पतालों का हाल बुरा है . गोरखपुर में इतने बच्चे मरे लेकिन देश में कुछ विशेष नहीं हुआ . रोज सरकारी अस्पतालों में बच्चे मर रहे हैं लेकिन किसको चिंता है ? कौन ये बच्चे जो बिना इलाज के मर रहे हैं . कौन है ये बच्चे तो दिमागी ज्वर से मर रहे हैं. अगर सर्वे करवाएंगे तो पता चलेगा तो अधिंकांश दलित पिछड़ी आदिवासियों के बच्चे हैं और डाक्टरों से लेकर सरकार तक किसी का उनको बचाने में इंटरेस्ट नहीं है . देश में लोगो का खून भी नहीं खोलता लेकिन एक बाबा के लिए जान देने वालो की कमी नहीं है . गरीब जनता को विज्ञानं से दूर रखकर हमने उन्हें मक्कार बाबाओ और पुरोहितो के फर्जीवाड़े में शामिल करवा दिया है . जब बच्चे मरेंगे , लोगो के पास इलाज के लिए पैसे नहीं होंगे , लड़की से छुटकारा पाने के लिए उसका चरित्र हनन कर बाबाओ के नरक में फेंका जाएगा तो कौन सा वैज्ञानिक चिंतन आने वाला है . विज्ञानं भारत में मनुवादी एकाधिकारवाद के लिए तुरुप का पट्टा है क्योंकि ये लोग वैज्ञानिक चिंतन नहीं बढ़ाना चाहते अपितु विज्ञानं या अन्य ‘ज्ञान’ का इस्तेमाल अपने व्यासायिक और राजनैतिक हितो को बढाने के लिए कर रहे हैं .
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में समाज या दर्शन में चिंतन की जगह चमत्कार शुरू हो जाता है और इसलिए लोग अपने जीवन में बदलाव के लिए संघर्ष के रस्ते को छोड़कर मसीहाओ की शरण में जाते हैं और येही हमारे समाज की दुर्गति का कारण है . मसीहाई संस्कृति ने लोगो का इतना शोषण कर दिया के रोज देश में बाबाओं के पाखंडो की कतार लग रही है और लोग आत्मचिंतन करने की बजाये अपने गुरुओ पर इतनी अंधश्रधा दिखा रहे हैं के उनके दिमाग के सभी अंग बंद हो गए दीखते हैं . ऐसे में देश में लोकतंत्र खतरे में है क्योंकिं वो हमने बाबाओं के ‘शातिर’ दिमागों के पास गिरवी रख दिया जो आपसे कभी सवाल करने की उम्मीद नहीं करते . भक्ति में शक्ति का नारा देकर हमारे दर्शन ने लोगो के दिमाग को बंद कर दिया फलस्वरूप शोषण की प्रक्रिया जारी है और शोषितों से प्रश्न नहीं पूछे जा सकते क्योंकि अंततः ऐसी व्यवस्था में दोष मूलतः शोषितों के ही मथ्थे मढ दिया जाता है .

इसलिए भारतीय समाज में व्याप्त जातिवादी अवैज्ञानिक चिंतन का पर्दाफास करने के लिए हमें ब्राह्मण वैज्ञानिक मेधा जी का धन्यवाद करना चाहिए जो उन लोगो से बहुत अच्छी और अपनी ‘विचारधारा’ पर चलने वाली हैं, जो कहते कुछ और हैं और अन्दर से कूट कूट कर घृणा और जाति की सर्वोच्चता का बखान करते हैं . कम से कम उन्होंने तो सीधे सीधे कहा के निर्मला ‘छोटी’ जाति की हैं और उसके हाथ का खाना खा कर उनका धर्म भ्रष्ट हुआ है . ऐसा तो भारत के अधिकांश लोग कहते हैं और वो थोडा संविधान के डर से छुपकर काम करते हैं और बहुत से लोग तो डरते भी नहीं है और खुले तौर पर अपनी जाति की सर्वोच्चता  का डंका बजाते रहते हैं . इसलिए  मेधा जी के द्वारा की गयी ऍफ़ आई आर से दुनिया भर के लोगो को शायद पता चल गया होगा के भारत किस प्रकार की ‘मानसिक’ बीमारी का शिकार है ? वर्णवाद, पुरोहितवाद और छुआछूत की बीमारी से जब तक हम बाहर नहीं आ पाए तो समाज को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त नहीं बना सकते हैं. अब ये सोचना जरुरी है के वैज्ञानिक  चिंतन  पहले जरुरी है वर्णव्यस्था का खात्मा या पहले वर्णव्यस्था का विनाश करे तो समाज वैज्ञानिक चिंतन की और जाएगा और फिर हम एक गैर बराबरी का समाज बना पाएंगे . ये बात सभी सोच ले के यदि भारत के लोगो का दिमाग नहीं बदला या उन्होंने अपने अन्दर से जातिवादी घिनौनी विचारधारा को नहीं फेंका तो इस देश में अराजकता के अलावा कुछ नहीं बचेगा जिसमे कोई विजेता नहीं होगी अपितु सभी हारे योद्धा एक दुसरे को नीच दिखाने की कोशिश करेंगे .ये बात जरुर है के लोगो के अन्दर भी ऐसी घटनाओं के चलते विद्रोह के स्वर बुलंद करने चाहिए. आश्चर्य इस बात का है बुद्ध, बाबा साहेब, फुले, पेरियार, कबीर, रैदास, राहुल संकृत्यायन, भगत सिंह आदि के विशाल मानववादी तर्कवादी दर्शन के बावजूद हमारे समाज में जड़ता की स्थिति है जिसे राहुल जी बहुत सही मानसिक गुलामी बताया था. ब्राह्मणवाद ने लोगो को मानसिक तौर पर गुलाम बनाया जिसके कारण शोषित शोषक के खिलाफ विद्रोह करने के स्वयं को ही दोषी ठहराता है . जरुरत है इस गुलामी की मानसिकता और संस्कृति से विद्रोह का और मानववादी संस्कृति को अपनाने की ताकि शोषण की इस व्यवस्था के लिए जो मुफ्त में मजूदरी देने वाले उनका काम करना बंद करें . आश्चर्य है के हमारे पास सब कुछ है, सिद्धांत है, दार्शनिक है, मनीषी है और वर्णवादी व्यस्था का शिकार लोग भी है लेकिन ये समझ कब आएगा के जो कुछ हो रहा है वो भाग्य नहीं कुटिलतापूर्वक किया गया वैचारिक अन्याय है ?

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