Tuesday 12 February 2013

इंसानी संवेदना की मौत



विद्या भूषण रावत 

अफजल गुरु की फांसी को लेकर तमाम किस्म के वाहियात बयान  आ रहे हैं और देशभक्ति दिखने के लिए यह जरुरी हो गया है के उसकी मौत का जश्न मनाया जाए। 13 दिसंबर 2001 को भारत की संसद में हुए हमले ने देश को विचलित किया था क्योंकि इसकी कामयाबी भारत के  को बदल सकती थे और भारत के पुरे राजनैतिक नेत्रित्व को समाप्त कर सकती थी। एक लोकतान्त्रिक समाज को खत्म करने की साजिश थी यह घटना लेकिन अफजल गुरु उस घटना का एक बहुत अदना सा गवाह है जिसके विरुद्ध भारत के उच्च न्यायालय को भी कोई सबूत नहीं मिल पाए और उसे फैसला देना पड़ा के 'देश के सामूहिक चेतना की आवाज' के आधार पर फांसी की सजा देनी पड़  रही है। यह देश के दिल का 'दर्द' देखकर कब से न्याय होने लगे और सवाल यह है की देश की आवाज क्या है।

जो लोग न्यायलय की प्रक्रिया को जानते हैं वोह यह मानते हैं के यहाँ का न्याय तकनिकी बातो का ख्याल रखता और परिस्थितिवश घटनाक्रम को नकारता है। मैं भी ऐसे मामलो को देख चूका हूँ के कैसे हमारे सम्मानित न्यायाधीश बिलकुल तकनिकी आधार पर निर्णय देते हैं। और हकीकत है के कागजो के मामले में तो सरकार  और उसके अधिकारी कभी कोई गलती करते ही नहीं। उनके पास तो सबूत  और कागज़ सब पुरे तौर पर तैयार रहते हैं। असल में सबूतो का अकाल तो आम आदमी के पास  रहता हैं जिसके पास न तकागज़ होते और न ही लड़ने की क्षमता। हमारे न्यायलय ने बताया की देश अत्म्पा की आत्मा दुखी है इसलिए अफजल गुरु को फांसी होनी चाहिए। अब देश को दर्द कब होता है यह भी देखना पड़ेगा। बाबरी मस्जिद गिरती है तो देश का दर्द गायब रहता है। जब मुंबई में दंगे होते हैं और बेगुनाह मारे जाते हैं तो इनाम के तौर पर शिव सेना को सत्ता मिलती है। जब देश में सिख मरते हैं तो पुरुस्कार स्वरूप सत्ता राजीव गाँधी को मिलती है और इतने वर्षों के बाद भी लोगो को न्याय नहीं मिल  पाता। उलटे जो विरोध करते हैं उन्हें प्रशाशन परेशान करता है।

देश की हालत ख़राब तब मानी  जाती है जब कोई अन्ना  या केजरीवाल धरने पर बैठा हो। जब देश के आदिवासी या दलित आन्दोलन करते हैं तो वोह या तो माओवादी होते हैं या नक्सलवादी। मुसलमानों का विरोध तो सीधे सीधे पक्स्तानी या आंतकवादी होने का तगमा देता है। कश्मीर और उत्तर पूर्व में विरोध को तो समाचारपत्र या टीवी एक छोटी सी खबर के तौर पर छापते हैं या दिखाते हैं।

अफजल गुरु को फांसी के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट में भी मतभेद थे और देश के जनता की भावनाओं को देखते हुए उसे फांसी दी गयी। अफजल गुरु ने इस प्रकार के न्याय को खाप पंचायत से जोड़ा क्योंकि न्याय में इस प्रकार की शब्दावली का इस्तेमाल नहीं होता। और अगर कोई सीधे तौर पर इन्वोल्व नहीं है और ना ही किसी गिरोह का सरगना है तो मात्र संबंधो के आधार पर किसी को मृतुदंड नहीं दिया जा सकता। दुसरे ये की मृत्युदंड के बाद कोई भी कैदी एक इज्जत का हक़दार है। अफज़ल की मौत से पहले उसके परिवार और बच्चे को उससे मिलने का हक है और सरकार को उसे यह इजाज़त देनी चाहिए थी और मौत के बाद उसका शरीर उसके परिवार को सौंपना चाहिए था। अफजल ओसामा बिन लादेन नहीं था। वोह एक बहुत ही मामूली सा व्यक्ति था जो आतंक के लोगो से जुड़ गया। लेकिन मौत में तो व्यक्ति को इज्जत बख्सनी चाहिए। नहीं तो हममे  और तालिबान में कोई फर्क नहीं है जो लोगो को सडको पे लटकाने में यकीन करते हैं। 

सभ्य समाज में मौत को इज्जत दी जाती है चाहे वोह दुश्मन की ही क्यों न हो। इसलिए प्रयास होते हैं के मरने के बाद व्यक्ति का एंटी संस्कार इजात के साथ उसके परिवार वाले कर सके लेकिन अफजल गुरु को वो नसीब नहीं हुआ। उसके परिवार को उसके मरने की खबर स्पीड पोस्ट से भेजी गयी जो इस सरकार की संवेदनहीनता को दिखाता है।

 आज कश्मीर जल रहा है। अफजल गुरु कुच्छ नहीं था लेकिन उसकी मौत की जल्दी ने कश्मीर में एक भर फिर अनिश्चितता का माहौल खड़ा कर दिया है। आज कश्मीर एक ऐसे मोड़ पर है जहाँ का रास्ता किधर जाता है किसी को पता नहीं। वोटों की चाहत में देश को फासीवाद की और धकेला जा रहा है और मुसलमानों को लगातार अलग थलग करने के प्रयास किये जा रहे हैं। यह शर्मनाक स्थिति है और इसकी निंदा करनी चाहिए। आज मुस्लमान यह प्रश्न पूछ रहा है की क्या अपराध और आतंकवाद उन्ही से जुडा है और क्या सरकारों ने इस मानसिकता को मिटने के कोई प्रयास किये।  आज यह सवाल जायज है के मुंबई में 1992 के कातिल, गुजरात 2002 के गुनाहगार, दिल्ली 1984 के मास्टरमाइंड, भिवंडी, मालेगांव, भागलपुर अलीगढ,  के दंगो के बादशाह कहाः हैं। वोह कैसे देश के प्रधानमंत्रीबन जाते हैं और कुच्छ और गुनाहगार प्रधानमंत्री बन्ने के सपना देखते हैं, आज यह सवाल आता है के कैसे 1992 में बावरी मस्जिद के गुनाहगार देश के हीरो बने बैठे हैं। क्या देश की अंतर आत्मा आम कश्मीरी, या उत्तर पूर्व के लोगो के लिए भी जगती है। क्या हम सवाल पूछेंगे के कैसे मक्का मस्जिद, समझौता एक्सप्रेस और अन्य घटनाओं में लिप्त आतंकवादियों के लिए मृतुदंड है या नहीं।

अफजल गुरु की फांसी  राजनैतिक कारणों से दी गयी क्योंकि कांग्रेस की सरकार को 2014 तक अपने आप को भाजपा से बड़ा देशभक्त साबित करना है और इसलिए वो हिंदुत्व का  बुलंद करेगी। वो साल के आखिर तक दिल्ली बलात्कार कांड के 5  को भी सूली पर  लटका देगी ताकि 'लोगो' की आत्मा को 'शांति मिल सके। मीडिया और हिंदुत्व का गठबंधन बहुत नाज्ज्दीक का है और यह लोग आतंकवाद, मुसलमान,  आदि का नाम लेलेकर मुसलमानों के असली मसलो को देश के अजेंडे पे नहीं आने देंगे और हिंदुत्व के प्रशंशक आतंकवादियों पर भी कोई कार्यवाही नहीं होने देंगे। सभी जानते हैं की जब पंजाब सरकार ने बेंत सिंह के हत्यारे को फांसी की सजा न देने की बात की तो भाजपा चुप क्यों थी। जब पंजाब में अकाली इंदिरा गाँधी के हत्यारों का सम्मान करते हैं तब हिंदुत्व के प्रशंशक चुप क्यों रहते हैं। इसी प्रकार, जयललिता ने राजीव गाँधी के हत्यारों के विषय में बात की। सवाल यह की फांसी की सजा का विरोध सीधान्तिक तौर पर होना चाहिए ना की अपने वोटो के जुगाड़ के हिसाब से। 

भाजपा और हिंदुत्व की शक्तियों की आत्मा की शांति के लिए हवनकुंड में अफजल गुरु की बलि देकर कश्मीर में आग लगाना कोई बहुत समझदारी की बात नहीं है। ऐसे समय जब वहा शांति वापस आ रही थी, इस प्रकार के घटनाक्रम ने सबको  विचलित किया है। क्या कश्मीर हमारा हिस्सा नहीं है/ क्या वहां के लोगो को विरोध करने का हक है या नहीं? क्या उन्हें टी वी और नेट देखने का हक है या नहीं। कश्मीर में जो कुच्छ हुआ वोह दर्शाता है के हम बहुत कुच्छ छुपाना चाहते हैं और दिल्ली में 'देशभक्ति' दिखने के लिए कश्मीर का अच्छे से  इस्तेमाल  करते हैं। हम इस मामले में पाकिस्तानियों से कम नहीं है जो सुबह शाम कश्मीर का राग अलापते रहते हैं। कश्मीर को कश्मीरियों के पास सौंपकर हम देश के समस्यों की और ध्यान क्यों नहीं देना चाहते।

कश्मीर के नाम पर देश में सत्ता की राजनीती होती रहेगी। कश्मीर का विकास तो नहीं हो पाया लेकिन हिंदुत्व को बिना काम के देश को चलने का ठेका मिल गया। और देश की मूल हिंदूवादी पार्टी कांग्रेस अब इस तिकड़म में लगी है के कैसे हिन्दू मुस्लिम सिख और सभी के वोट भी मिल जाएँ और ब्र्हमिन्वादी ताकतों के हित भी कायम रखे। दोनों की इसी जुगत में देश आज साम्प्रदायिकता की और  जा रहा है और देश में रहने वाले पसमांदा लोग हाशिये पे जा रहे हैं। एक तरफ पूंजी का हित कायम रखा जा रहा है और दूसरी और उनके धार्मिक सिपहसलार लोगो को उनके ही मसलो में उलझाये रखना चाहते है। उन्हें लड़ने के लिए पाकिस्तान चाहिए इस्लाम चाहिए, अफजल गुरु चाहिए और कश्मीर चाहिए। सत्ताधारी ऐसे मामलो को व्यक्तिगत तौर पर जवाब देते हैं और कोशिश करते हैं के मामले निपट जाएँ लेकिन यह विचारधारा का मामला है जो कभी निपटेगा नहीं क्योंकि राजनीती की बिसात बिच्छ चुकी हैं और हर दिन एक सवाल खड़ा किया जाएगा, हर दिन एक अदद दुश्मन ढूंडा जायेगा ताकि माहौल को गरमाया जा सके। जब रोज रोज अफजल गुरु, कश्मीर और पाकिस्तान के   चर्चे होंगे तो हिंदुत्व के आकाओं के गैर संविधानिक   और देश विरोधी  सवालो पर चर्चा कब होगी . बाबरी के गुनाहगारो, या मालेगांव मक्का  मस्जिद या समझौता एक्सप्रेस  के हादसों के गुनाहगारो को सजा देने की बात  कौन कहेगा?

घृणा की ताकते फांसी के फंदों से नहीं डरती क्योंकि वोह अपने धर्म का परचम लहराना चाहती है। यह विचारधारो की लड़ाई है। अफजल गुरु को फांसी लगी लेकिन जैश और लश्कर अपने काम करते रहेंगे क्योंकी उनसे लड़ने के लिए हमारे पास कोई रणनीति नहीं है और हम रास्ट्र के प्रश्न को सम्प्रदाय और राजनितिक जुगाद्बाजी तक सीमित कर दे रहे हैं। कश्मीर देश का प्रश्न है और उसे हम बन्दूक के बल पर नहीं प्यार से ही अपने पास रख सकते हैं। दबंगई से कोई रास्त्र न तो चलता है न ही कोई समाज बन सकता है। जरुरत इस बात की है के हमारी राजनैतिक पार्टियाँ कुच्छ चेतना दिखाएँ और संघ के अजेंडे को सीधे सीधे ललकारें हाज हमारा  मीडिया हिंदुत्व के अजेंडे को बाधा रहा है और इन सभी संकेतो का इस्तेमाल कर रहा है ताकि देश में सांप्रदायिक तनाव जारी रखा जा सके। ऐसे सभी लोगो का पर्दाफास करना जरुरी है।

आज भारत चौराहे पे खड़ा है जहाँ धर्म के नाम पर लोगो का शोषण लगातार जारी है और धर्म को चुनौती देने वाली तकते इस वक़्त घायल पड़ी हैं। समय आ गया है सब प्रगतिशील ताकतों की एकता का ताकि अंधविशवास, जातिवाद और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध हमारी जंग कामयाब हो सके।

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