धार्मिक पाखण्ड के खिलाफ़ बोलने की जरुरत
विद्या भूषण रावत
अगर हम भारत मे गरीबी का विश्लेषण करें तो एक बात साफ़ है के यहा के राजा महाराज़ाओ ने जनता में शिक्षा के प्रसार के वास्ते कुछ नही किया. उनकी अय्याशी और नाकामी के किस्से जग जहिर है. अत: भारत में विशाल महल और किले तो है और हम सभी वहाँ जाकर उनकी सुन्दरता को निहारते है और उस पर बहुत लिखते भी हैं. उदाहरण के लिये राजस्थान, जहाँ के राज़ाओ के महल आज बडे होटलों मे तब्दील हो गये है लेकिन वहीं पर सामंतशाही बरकरार है और अंधविश्वास भी व्याप्त है. लोग कहते हैं कि राजस्थान शांत है और अक्सर उत्तर प्रदेश और बिहार को अशान्त कह कर तुलना करते हैं. वह ये भूल जाते हैं कि दलितों के ऊपर होने वाली हिन्सा का सीधा ताल्लुक उनकी अस्मिता के प्रश्न से है. मतलब यह के जब भी किसी सामन्ती को उसकी भाषा में जबाब मिल जायेगा तो वह अपनी ताकत का अहसास हिंसा से करवाता है. जहाँ पर भी तर्क समाप्त हो जाते हैं वहा ताकतवर हिंसा पर उतर आते हैं.
भारत में राजाओं के पास इतनी दौलत थी कि दुनिया के दूसरे मुल्को के धनी लोगो को शर्म आ जाये. युरोप और अमेरिका से हम गरीबी में पीछे हैं, अमीरी मे नही. दुनिया मे कहीं पर भी मन्दिरों मे इतनी सम्पत्ति और सोना नही मिलेगा जितना हमारे देश में है. अभी केरल में पद्म्नाभन मन्दिर मे जो सोने का भण्डार मिला है वो हमारे देश की सम्पति नही है और मन्दिर के लोग उस पर अपना नियंत्रण चाहते हैं. अखिर मन्दिर को सोने की क्या जरुरत? आज हमारे लेखक त्रावणकोर के रियासात की महानता के गुन गा रहे हैं. सब ये भूल जाते हैं कि इस रियासत के वाइकुम मन्दिर में दलितो के प्रवेश के लिये पेरियार ने वहुत बडा आन्दोलन किया था जिसे गाँधी ने पहले समर्थन दिया था और बाद मे हिन्दुओ के दबाब में वो झुक गये और पेरियार ने इसे मुद्दे पर अपना रास्ता बदल दिया और मठों और मन्दिरो के खिलाफ अपना अभियान शुरु कर दिया.
आज हमे यह समझने की जरुरत है कि मन्दिरों मे इतना धन क्यों आ रहा है और क्यों हमारे राजाओं ने उसको आगे बढाया. इन राजाओं ने प्रजा पर अपना नियंत्रण रखने के लिये और किसी भी प्रकार के विद्रोह को कुचलने के लिये ब्राहमणों का सहारा लिया और उन्हें कामायाबी मिली क्योंकि कौन राजा अच्छा है इसका मापदण्ड हमारे इतिहासकारों ने उसके महलों की शान और उसके द्वारा बनाये गये मन्दिरों से लगाया. इन इतिहासकारों ने कभी भी ये जानने की कोशिश नहीं की कि इनके समय में जाति व्यवस्था का क्या हाल था? ये इसलिये कि इतिहासकारो ने अक्सर अपने जातिगत हितों का ज्यादा ख्याल रखा. जितना पैसा और सोना इन रजवाडों और मन्दिरों की शान शौकत में खर्च किया गया उसका १०% भी शिक्षा और स्वासथ्य पर खर्च नही किया गया. मन्दिरों के द्वारा गरीबों के हितों पर तथाकथित खर्च असल में कभी भी जाति के शिकार लोगों के हितो पर नही लगाया. राजाओं ने यह धन मन्दिरों में इसलिये लगाया ताकि उनकी सारी आलोचनाओ को नियंत्रित किया जा सके क्योंकि मन्दिरों पर खर्च का मतलब वर्ण व्यवस्था को कायम रखने का षणयंत्र था.
आजादी के बाद भी मन्दिरो के द्वारा हमारी राजनीति और सामाजिक व्यवस्था को नियंत्रित किया जाता रहा है. लेकिन १९९० के बाद, जैसे -जैसे दलित पिछडों की राजनीति ने कदम बढाये, मन्दिरों की राजनीति पर खतरा मण्डराने लगा और उनके द्वारा फिर से अपनी व्यवस्था को वापस लाने की कोशिशें होने लगी. हिन्दुत्व की मुख्य परेशानी असल में शिक्षा पर व्यापक प्रसार से होने वाले बदलाव से है. आज जाति का शिकार हुए लोग, बाहर निकलकर नयी व्यवस्था में जा रहे हैं और उन्हें किसी भगवान की जरुरत नहीं है.
इस क्रान्ति को जो बाबा साहिब आम्बेडकर के रास्ते पर चलकर आयी है इसे खत्म करने के प्रयास जारी है. इसलिये आज जरुरत है कि हम भारत के मन्दिरों, और अन्य धार्मिक स्थलों का राष्ट्रीयकरण की बात करें और उसके धन पर कर लगाया जाये. इन मन्दिरों में अपार सम्पत्ति है जिस पर सिलिंग लगनी चाहिये. क्या ये दुखद नहीं के जहाँ देश का किसान साधारण्तय १८ एकड़ से अधिक भूमि नहीं रख सकता लेकिन मन्दिरों को हज़ारों एकड़ जमीन रखने की इजाजत है. जब इस देश में आम आदमी कर देता है तो मन्दिरो को इससे मुक्ति क्यों? असल में धार्मिक ताकतें देश की प्रगति और लोकतन्त्र में सबसे बडी बाधक हैं क्योकि वो राज्य और सरकार को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं और देश में राजनैतिक परिवर्तन को सामाजिक बनाने से रोकते हैं. य़ह समझना जरुरी है कि आखिर हमारे कद्दावर नेता इन बाबाओं और उनके मठों के इतने गुलाम क्यों है? क्या कारण है कि ये बाबा लोग जब बीमार होते हैं तब उनका इलाज़ सबसे बेहरीन अस्पतालों में होता है और उनके लिये सबसे अच्छे चिकित्सक उप्लब्ध है जबकि ये बाबा, साधु और सन्यासी हमें आधुनिकता से दूर रखना चाहते हैं. अपने भक्तों को बाबा भौतिकवाद से दूर रहने को कहते हैं और खुद महलों मे रहकर दुनिया के सबसे आलिशान तरीके से जीवनयापन करते हैं.
आश्चर्य है कि हमारे लोग इन बातों को जानते हुए भी अंजान बने हैं. आज जरुरत है एक लोकपाल की जो हमारे धर्मिक स्थलों की आय -व्यय और राजनैतिक गतिविधियों पर नियंत्रण रख सकें. केवल गेरुआ वस्त्र पहनने से लोग अच्छे नहीं हो जाते. धर्म के पाखण्ड पर आज हमकों खुलकर बोलने की जरुरत है, हमारी समस्याओ का मुख्य कारण हमारे मठ और मंदिर है..इनको कानून से ऊपर ना माने.
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